महान संगीतज्ञ अमीर खुसरो


महान संगीतज्ञ अमीर खुसरो

 

आरंभिक जीवन:

         मध्य एशिया की लाचन जाति के तुर्क सैफुद्दीन के पुत्र अमीर खुसरो का जन्म सन् (६५२ हि.) में एटा उत्तर प्रदेश के पटियाली नामक कस्बे में हुआ था। लाचन जाति के तुर्क चंगेज खाँ के आक्रमणों से पीड़ित होकर बलवन (१२६६ -१२८६ ई.) के राज्यकाल में ‘’शरणार्थी के रूप में भारत में आ बसे थे। खुसरो की माँ बलबन के युद्धमंत्री इमादुतुल मुलक की लड़की, एक भारतीय मुसलमान महिला थी। सात वर्ष की अवस्था में खुसरो के पिता का देहान्त हो गया। किशोरावस्था में उन्होंने कविता लिखना प्रारम्भ किया और २० वर्ष के होते होते वे कवि के रूप में प्रसिद्ध हो गएं। खुसरो में व्यवहारिक बुद्धि की कमी नहीं थी। सामाजिक जीवन की खुसरो ने कभी अवहेलना नहीं की। खुसरो ने अपना सारा जीवन राज्याश्रय में ही बिताया। राजदरबार में रहते हुए भी खुसरो हमेशा कवि, कलाकार, संगीतज्ञ और सेनिक ही बने रहे।

        अमीरख़ुसरो की माँ दौलत नाज़ हिन्दू (राजपूत) थीं। ये दिल्ली के एक रईस अमी इमादुल्मुल्क की पुत्री थीं। अमी इमादुल्मुल्क बादशाह बलबन के युद्ध मन्त्री थे। ये राजनीतिक दवाब के कारण नए-नए मुसलमान बने थे। इस्लाम धर्म ग्रहण करने के बावजूद इनके घर में सारे रीति-रिवाज हिन्दुओं के थे। ख़ुसरो के ननिहाल में गाने-बजाने और संगीत का माहौल था। ख़ुसरो के नाना को पान खाने का बेहद शौक़ था। इस पर बाद में ख़ुसरो ने ‘तम्बोला’ नामक एक मसनवी भी लिखी। इस मिले-जुले घराने एवं दो परम्पराओं के मेल का असर किशोर ख़ुसरो पर पड़ा। वे जीवन में कुछ अलग हट कर करना चाहते थे और वाक़ई ऐसा हुआ भी। ख़ुसरो के श्याम वर्ण रईस नाना इमादुल्मुल्क और पिता अमीर सैफ़ुद्दीन दोनों ही चिश्तिया सूफ़ी सम्प्रदाय के महान सूफ़ी साधक एवं संत हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया उर्फ़ सुल्तानुल मशायख के भक्त अथवा मुरीद थे। उनके समस्त परिवार ने औलिया साहब से धर्मदीक्षा ली थी। उस समय ख़ुसरो केवल सात वर्ष के थे। सात वर्ष की अवस्था में ख़ुसरो के पिता का देहान्त हो गया, किन्तु ख़ुसरो की शिक्षा-दीक्षा में बाधा नहीं आयी। अपने समय के दर्शन तथा विज्ञान में उन्होंने विद्वत्ता प्राप्त की, किन्तु उनकी प्रतिभा बाल्यावस्था में ही काव्योन्मुख थी। किशोरावस्था में उन्होंने कविता लिखना प्रारम्भ किया और 20 वर्ष के होते-होते वे कवि के रूप में प्रसिद्ध हो गये।

        तीन भाइयों में अमीर खुसरो सबसे अधिक तीव्र बुद्धि वाले थे। अपने ग्रंथ गुर्रतल कमाल की भूमिका में अमीर खुसरो ने अपने पिता को उम्मी अर्थात् अनपढ़ कहा है। लेकिन अमीर सैफुद्दीन ने अपने सुपुत्र अमीर खुसरो की शिक्षा-दीक्षा का बहुत ही अच्छा (नायाब) प्रबंध किया था। अमीर खुसरो की प्राथमिक शिक्षा एक मकतब (मदरसा) में हुई। अमीर खुसरो का लेखन बेहद ही सुन्दर था। खुसरो ने अपने फ़ारसी दीवान तुहफतुसिग्र (छोटी उम्र का तोहफ़ा – ६७१ हिज्री, सन १२७१, १६-१९ वर्ष की आयु) में स्वंय इस बात का ज़िक्र किया है कि उनकी गहन साहित्यिक अभिरुचि और काव्य प्रतिभा देखकर उनके गुरु सादुद्दीन या असदुद्दीन मुहम्मद उन्हें अपने साथ नायब कोतवाल के पास ले गए। वहाँ एक अन्य महान विद्वान ख़वाजा इज्जुद्दीन (अज़ीज़) बैठे थे। गुरु ने इनकी काव्य संगीत प्रतिभा तथा मधुर संगतीमयी वाणी की अत्यंत तारीफ की.

        ख्वाजा साहब ने तब अमीर खुसरो से कहा कि ‘मू’ (बाल), ‘बैज’ (अंडा), ‘तीर’ और ‘खरपुजा’ (खरबूजा) – इन चार बेजोड़, बेमेल और बेतरतीब चीज़ों को एक अशआर में इस्तमाल करो। खुसरो ने फौरन इन शब्दों को सार्थकता के साथ जोड़कर फारसी में एक सद्य:: रचित कविता सुनाई – ‘हर मूये कि दर दो जुल्फ़ आँ सनम अस्त, सद बैज-ए-अम्बरी बर आँ मूये जम अस्त, चूँ तीर मदाँ रास्त दिलशरा जीरा, चूँ खरपुजा ददांश मियाने शिकम् अस्त।’ अर्थातः उस प्रियतम के बालों में जो तार हैं उनमें से हर एक तार में अम्बर मछली जैसी सुगन्ध वाले सौ-सौ अंडे पिरोए हुए हैं। उस सुन्दरी के हृदय को तीर जैसा सीधा-सादा मत समझो व जानो क्योंकि उसके भीतर खरबूजे जैसे चुभनेवाले दाँत भी मौजूद हैं।

        एक बार की बात है। तब खुसरो गयासुद्दीन तुगलक के दिल्ली दरबार में दरबारी थे। तुगलक खुसरो को तो चाहता था मगर हजरत निजामुद्दीन के नाम तक से चिढता था। खुसरो को तुगलक की यही बात नागवार गुजरती थी।मगर वह क्या कर सकता था, बादशाह का मिजाज। बादशाह एक बार कहीं बाहर से दिल्ली लौट रहा था तभी चिढक़र उसने खुसरो से कहा कि हजरत निजामुद्दीन को पहले ही आगे जा कर यह संदेस दे दे कि बादशाह के दिल्ली पहुँचने से पहले ही वे दिल्ली छोड क़र चले जाएं। खुसरो को बडी तकलीफ हुई, पर अपने सन्त को यह संदेस कहा और पूछा अब क्या होगा? ” कुछ नहीं खुसरो! तुम घबराओ मत। हनूज दिल्ली दूरअस्त – यानि अभी बहुत दिल्ली दूर है। सचमुच बादशाह के लिये दिल्ली बहुत दूर हो गई। रास्ते में ही एक पडाव के समय वह जिस खेमे में ठहरा था,भयंकर अंधड से वह टूट कर गिर गया और फलस्वरूप उसकी मृत्यु हो गई। तभी से यह कहावत ‘अभी दिल्ली दूर है’ पहले खुसरो की शायरी में आई फिर हिन्दी में प्रचलित हो गई।

छह वर्ष तक ये जलालुद्दीन खिलजी और उसके पुत्र अलाउद्दीन खिलजी के दरबार में भी रहे । ये तब भी अलाउद्दीन खिलजी के करीब थे जब उसने चित्तौड ग़ढ क़े राजा रत्नसेन की पत्नी पद्मिनी को हासिल करने की ठान ली थी। तब ये उसके दरबार के खुसरु-ए-शायरा के खिताब से सुशोभित थे। इन्होंने पद्मिनी को बल के जोर पर हासिल करने के प्रति अलाउद्दीन खिलजी का नजरिया बदलने की कोशिश की यह कह कर कि ऐसा करने से असली खुशी नहीं हासिल होगी, स्त्री हृदय पर शासन स्नेह से ही किया जा सकता है, वह सच्ची राजपूतानी जान दे देगी और आप उसे हासिल नहीं कर सकेंगे।

संगीत को आधुनिक रूप नए वाद्य ,नए ,ताल,राग,’ गीतों,को आधुनिक रूप प्रदान करने में अमीर खुसरो का योगदान

 अमीर  खुसरो  का  नाम  संगीत  प्रेमी  कभी  भी  भुला  नहीं  सकते  |  संगीत  को  आधुनिक   रूप   प्रदान   करने   में   अमीर   खुसरो  का  बहुत  बड़ा  योगदान  रहा  है |

अमीर  खुसरो  का  जन्म  सन  1253  ईसवी  में  एटा  जिला ,उत्तर प्रदेश  के  पटियाली    नामक  स्थान   पर  हुआ  उनके  पिता  का  नाम  अमीर  मोहम्मद  सैफ़ुद्दीन  था।  जो  बलवान  से 

पटियाली  आकर  बस  गए  थे।  अमीर  खुसरो  तेज  बुद्धि  के  व्यक्ति  थे। अमीर  खुसरो  के  पिता  अमीर  मोहम्मद  के  निधन  के  बाद  उस  समय  गुलाम  वंश  के  राजागयासुद्दीन  बलवन  का  उनको  राजश्रय  प्राप्त  हो  गया , वहाँ   पर  उनको  साहित्य  और  संगीत  के  प्रति  विशेष  लगाव  रूचि  उत्पन  हुई।  कुछ  दिनों   तक  अमीर  खुसरो  ने  कई  राज्य  में  अलग – अलग जगहों   पर   नौकरी  की।

उसके  बाद  वह  अल्लाउद्दीन  ख़िलजी  के  पास  चले  गए   अल्लाउद्दीन  ख़िलजी  स्वयं  एक  बहुत  बड़ा  संगीत  का  प्रेमी  था।  अल्लाउद्दीन  ख़िलजी  ने  अमीर  खुसरो  को  राज्य  का  गायक  नियुक्त  कर  दिया।  अमीर  खुसरो  अल्लाउद्दीन  ख़िलजी  को  शायरी  और  प्रतिदिन  नए – नए   ग़ज़ल  सुनाते  रहते  थे।  अल्लाउद्दीन  ख़िलजी  के  दरबार  में  कई  अन्य   संगीतज्ञ  थे  लेकिन  उन   सभी   संगीतज्ञ  में   अमीर  खुसरो   को  दरबार  में  सर्वोच्च  स्थान  प्राप्त  था।

संगीत की प्रतियोगिता

  कुछ  विद्वान्   ऐसा  मानते  है  कि   जब  अल्लाउद्दीन ख़िलजी  ने   दक्षिण   भारत  के  देवगिरी नामक  राज्य  पर  विजय   प्राप्त  की  तब  अल्लाउद्दीन  ख़िलजी   के  साथ  में  अमीर  खुसरो  भी  गए  थे।  गोपाल  नायक   देवगिरी   का  राज्य   गायक था।  वहाँ   पर  उन  दोंनो   संगीतज्ञो  के  बीच   में  एक  संगीत   प्रतियोगिता   आरम्भ   की  गई। जिसमे  अमीर  खुसरो  ने  छल -कपट  करके  प्रतियोगिता  जीत   लिया।  खुसरो  को  गोपाल  नायक   की  काबिलियत  की  सही   परख  थी।  अतः  उसे   साथ   में  दिल्ली   ले   आया  और  गोपाल  नायक  के  साथ  रहकर  संगीत  के  महत्पूर्ण  कार्य   किये  जो  इस   प्रकार   है 

अमीर खुसरो ने नए वाद्य ,नए ,ताल,राग,’ गीतोंकी रचना की

अमीर  खुसरो  ने  उस  समय   के लोगो  की  रूचि   का  अध्ययन  किया  और  उसके  अनुकूल  नए   वाद्य  , राग  , गीत  और  तालों   की  रचना   की। आधुनिक  काल   में  लोकप्रिय  गीत – “छोटा  ख्याल”   के  अविष्कार  करने  का  श्रेय   उन्ही   को  जाता  है।  कुछ  विद्वानों    के  कथानुसार  उन्होंने  छोटा  ख्याल , कब्बाली  तथा   तराना  तीनो   का   अविष्कार  खुसरो  ने  किया।  उनके  सभी   तराने  प्रातः  एक  ताल  में  होते  थे  तथा  उसमें  फ़ारसी   के  शेर  भी  होते  थे


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