वैदिक साहित्य में अन्य कलाओं के तरहा ही संगीत कला के भी उल्लेख सर्वत्र मिलते है। गायन के लिए वैदिक साहित्य में गीत संज्ञा का मिलती है।
वैदिक काल में गायन, वादन तथा नृत्य के भी स्पष्ट उल्लेख मिलते है।
इस काल में सर्वाधिक साम गायन का प्रचार था। यज्ञ आदि अवसरों पर साम गायन किया जाता था। साम गायन विभिन्न स्तोभों द्वारा गाया जाता था। स्तोभों से युक्त एवं रहित दोनों प्रकार से साम गाया जाता था। साम गायन के कई प्रकार प्रचलित थे। उदाहरण – वर्षा-हार
सूर्य, अग्नि आदि की स्तुति साम स्तोत्रों द्वारा की जाती थी।
यज्ञ की समाप्ति साम गायन से की जाती थी।
केवल मात्र कंठ संगीत का अर्थात किसी स्वर वाद्य की संगति के बिना किया गया साम गायन सर्वश्रेष्ठ समझा जाता था।
ऋग्वेद में साम की निर्मिति पुरुष प्रजापति से मानी गई है।
सोम स्तुति के अवसर पर यज्ञगृह में बाण नामक वाद्य के साम गायन होता था।
वीणागाथी संज्ञा जो वैदिक साहित्य में अनेक स्थानों पर प्रयुक्त की गया है, वह भी वीणा नामक वाद्य के साथ गायन करने वाले के लिये की गई है।
वीणा वादन ब्राह्मण तथा क्षत्रिय दोनों ही करते थे।
अश्वमेघ यज्ञ के दिन घोड़े को छोड़ा जाता था, तभी वीणागणगिन गाथा का गायन करते थे।
वैदिक युग की कृतियों का संकलन चार संहिताओं में हैं –
ऋक – ऋक शब्द ऋच धातु से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है स्तुति या प्रार्थना करना।
जिस संहिता में स्तुति मंत्रो का संग्रह होता है, उसे ऋक संहिता या वेद कहा गया है।
वेद में देवताओं की स्तुति का विधान है और यह छंदोबद्ध है।
यजु – यजु का अर्थ है यज्ञ करना।
जो मंत्र यज्ञ में प्रयोग होते हैं, उनका संकलन यज्ञ संहिता या यजुर्वेद में होता है।
साम – साम शब्द का अर्थ है गान।
मीमांसासूत्र में लिखा है, गीतिषु सामाख्या गीत शब्द के लिए साम शब्द का प्रयोग किया गया है।
जो ऋक मंत्र गान में प्रयोग होते हैं उनके संग्रह को साम संहिता या सामवेद कहा जाता है।
अथर्व – अथर्व संहिता में उन मंत्रों का संग्रह है जो शांति देने वाले सुख मुलक एवं मांगल्यप्रद हैं।
ऋग्वेद में सर्वप्रथम संगीत विषयक सामग्री प्राप्त होती है।
इन्ही संहिताओं में गीत शब्द के लिए गीर, गातु, गाथा, गायत्र आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है।
लौकिक प्रसंग जैसे – जन्म, मृत्यु, उपनयन आदि में गातु जैसे शब्दों का उल्लेख है।
मनुष्य के कंठ को शरीरी वीणा कहा गया।
इसी आधार आधार पर दारवी वीणा या काष्टमय वीणा का निर्माण हुआ है।
विभिन्न वाद्य यंत्र – दुंदुभी, गर्गर, वाण (वीणा), बाकुर, नाड़ी(वेणु जैसी), आघाटी झाँझ) बजाने का भी प्रचलन था।
वैदिक काल में तीन स्वरों का गान ‘सामिक’ कहलाता था।
इन तीन स्वरों से ही आगे चलकर कर सात स्वरों की निर्मिति हुई है।
वैदिक काल में संगीत ज्ञाता इसके व्याकरण से भी परिचित थे, जैसे – आर्चिक (एक स्वर), गाथिक (दो स्वर) और सामिक (तीन स्वर) शब्दों से स्वरों की संख्या समझी जाती थी।
ग्रन्थ ‘‘सिद्धान्त-कौमुदी’’ में लिखा है कि ‘‘निषाद और गान्धार उदात्त, ऋषभ एवं धैवत अनुदात्त तथा शड्ज माध्यम एवं पंचम स्वरित स्वरों पर आधारित है।
साम आधुनिक
क्रुष्ट मध्यम (म)
प्रथम गांधार (ग)
द्वितीय ऋषभ (रे)
तृतीय षड्ज (स)
चतुर्थ निषाद (नि)
मंद्र धैवत (ध)
अतिस्वार्य पंचम (प)
साम वेद में विभिन्न गीत शैलियों(जो आज के युग में लोक संगीत कही जाती हैं) का भी उल्लेख मिलता है।
जैसे – सामाजिक गीतों को ग्राम गेय गान कहा जाता था।
जंगलों में गाए जाने वाले लोगों के गीतों को अरण्यगेय गान कहा जाता था।
ऊह गान यज्ञ गीत था।
साम गायन विभिन्न छंदो में गायन करणे वाले को छंदोग कहाँ जाता था।
छंदोग गायन में जो प्रमुख ऋत्विक होता था उसे उदगाता कहते थे।
विभिन्न ऋषिमुनि जब सामगान करते थे, तो उन्हें सामग, छंदोग या उदगाता सम्बोधित करते थे।
साम गान के अतिरिक्त जो लौकिक अथवा स्वतंत्र गायन करते थे उन्हें गंधर्व कहते थे।
साम = सा + अम, ऐसी साम शब्द की निर्मित हुई है।
सा = पठनात्मक ऋचा
अम = आलापात्मक स्वर
साम गान तीन व्यक्तियों में हो सकता है। इनमें से प्रमुख उदगाता और उनके दो सहायक प्रस्तोता और प्रतिहर्ता थे।
साम गान के प्रमुख पांच भेद –
हिंकार या हुंकार – आधुनिक समय में जिस तरहा गायक गान शुरू करने से पहले आ कहते हुए स्वर लगता है बस उसी तरहा साम गायक हुँ का स्वर का उच्चारण करता था।
प्रस्ताव – गीत अथवा मंत्र के प्रारंभिक भाग को प्रस्ताव कहते है।
उदगीत – प्रस्तान के बाद उदगीत गायन मुख्य भाग होता था।
प्रतिहार – उदगीत के अंतिम पद से प्रतिहर्ता गान को पकड़ता है और प्रतिहार भाग में आता है।
निधन – यह गीत का अंतिम भाग होता है। इस में प्रस्तोता, उदगाता और प्रतिहर्ता तीनों एक साथ गाते हैं।