धमार गायन शैली
‘धमार’ एक गायन शैली है जो प्राचीन काल से प्रचलित रही है। मतंग, दुर्गशक्ति, चाष्टिक, शार्दूल तथा शारंगदेव आदि विद्वानों ने इसे ‘भिन्नागीति’ नाम से पुकारा और आज इसे धमार गायकी कहा जाता है।
जैसे भिन्ना गीति में स्वर, शब्द और लय का प्रयोग भिन्न-भिन्न प्रकार से किया जाता था वैसे ही आधुनिक धमार गायकी को विभिन्न प्रकार के बोल-बांटों से अलंकृत किया जाता है। धमार विभिन्न शब्दयुक्त स्वर लहरियों द्वारा गायी जाती है।
इसमें और ध्रुपद में अन्तर केवल इतना ही है कि ध्रुपद गायकी का प्रदर्शन विभिन्न प्रकार की लयकारियों अर्थात् दिगुन, तिगुन, चैगुन और अठगुना आदि द्वारा किया जाता है और धमार गायकी में बोल-बांट अर्थात् शब्दों को विभिन्न स्वरलहरियों द्वारा व्यक्त करते हैं।
ध्रुपद में गीत की धुन नहीं बदलती परन्तु धमार में गीत को विभिन्न प्रकार की रागवाची धुनों द्वारा प्रस्तुत करते हैं। इन धुनों को सुन्दर तिहाइयों से सुसज्जित करते हैं। धमार गायन में धु्रपद जैसा ही नोम-तोम का आलाप किया जाता है।
धमार के गीतों में ब्रज की होली लीला का वर्णन होता है, जिसमें भगवान कृष्ण गोपियों के साथ होली खेलते दिखाये जाते हैं। ये गीत धमार नामक ताल में गाये जाते हैं। ‘धमार’ ताल में एक चक्र में 14 मात्रायें होती हैं। इसमें चार विभाग होते हैं। प्रथम विभाग में 5 मात्रा, दूसरे में 2 मात्रा, तीसरे में 4 मात्रा तथा चैथे में 3 मात्रा होती है। इस ताल में प्रथम, छठी तथा बारहवीं पर ताली तथा आठवीं पर खाली होती है। इस तरह आपने देखा कि इसकी मात्रायें विभाग आदि सब भिन्न हैं।
इस शैली के गीत में गान व नृत्य तथा होली सब भिन्न हैं। इस शैली के गीत में गान व नृत्य तथा होली उत्साह होने के कारण संभवतः इसकी ‘धमाल’ संज्ञा रही होगी जो बाद में ‘धमार’ नाम से प्रसिद्ध हो गयी। धमार गायन में उपज का काम खूब होता है। यह एक श्रृंगार रस प्रधान गायन शैली है। इसमें
राग की शुद्धता पर विशेष ध्यान दिया जाता है। इसका गायन मध्य तथा द्रुत लय में पखावज के साथ किया जाता है।