ओडिसी नृत्य को ओरिली के नाम से भी जाना जाता है। इन स्थलों में सबसे पुराने उदयगिरि और खंडगिरि (भुवनेश्वर के पास) के जैन गुफा-मंदिर हैं जो ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी के हैं। इन मंदिरों के अग्रभागों में कम राहत में संगीत और नृत्य के दृश्य उकेरे गए हैं।उदयगिरि में भी हाथीगुम्फा गुफा (हाथी गुफा) में एक शिलालेख में राजा खारवेल द्वारा अपने लोगों के लिए आयोजित ‘ तांडव और अभिनय ‘ का उल्लेख है ।
बौद्ध कालीन सहजयान एवं वज्रयान शाखाओं की सौंदर्य प्रधान साधन से ओडिसी नृत्य का जन्म हुआ है। ओडिसी नर्तक अक्सर दावा करते हैं कि यह भारतीय शास्त्रीय नृत्यों में सबसे पुराना है, जो नाट्यशास्त्र से लिया गया है।
ओडिसी एक उच्च शैली का नृत्य है और कुछ हद तक शास्त्रीय नाट्य शास्त्र और अभिनय दर्पण पर आधारित है । वास्तव में, यह नृत्य जदुनाथ सिन्हा द्वारा अभिनय दर्पण प्रकाश , राजमणि पात्रा द्वारा अभिनय चंद्रिका और महेश्वर महापात्र द्वारा अभिनय चंद्रिका से बहुत कुछ लिया गया है।
इस नृत्य में मुख्य रूप से भगवान विष्णु को जगन्नाथ, शिव, सूर्य और शक्ति की पूजा की जाती हैं।
इस नृत्य की गोतिपुआ एवं महरिया यह दो परम्पराएँ हैं।
महरिया जो मुख्यतः मंदिर की नर्तकियाँ(देवदासी) थी जो धीरे-धीरे शाही दरबारों की नर्तकियाँ बनी जिसका यह परिणाम हुआ कि यह नृत्य का कला रूप में विकसित हुआ।
इसी काल के आस-पास पुरुषों द्वारा स्त्री का वेषधारन करके जो एक समूह नृत्य करता था उन्हें गोटूपुआ कहा जाने लगा। जो नृत्य कला में प्रवीण थे। गोटूपुआ परम्परा से जुड़े यह पुरुष मंदिरों में और लोगों के मनोरंजन के लिए भी यह नृत्य करने लगे।
ओडिसी नृत्य शैली के वर्तमान गुरुओं में अनेक गोटूपुआ परम्परा से जुड़े है। यह नृत्य महिला नर्तक एकल एवं समूह में करती हैं। वर्तमान में पुरुष भी इस नृत्य के प्रदर्शन में भाग लेते हैं।
इस नृत्य के साथ कवि जयदेव के बारहवीं सदी के गीत-गोविंद के अष्टपदों का गायन प्रमुखता से किया जाता है।
इनमें मुख्य रूप से गीतागोविंदा और सोलहवीं-अठारहवीं शताब्दी के ओडिया भक्ति कवियों जैसे उपेंद्र भांजा, बनमाली दास, बलदेव रथ, आदि द्वारा लिखित कविता शामिल हैं।
इसमें प्रधानतः तीन प्रकार की भंगिमाएँ होती है – मस्तक, पृष्ठभाव तथा स्थिर मुद्राएँ और इसके साथ भाव, राग एवं ताल का समन्वय होता है।
ओडिसी नृत्य की नियमनिष्ठ रंगपटल का एक प्रस्तुतिकरण क्रम – आरम्भ में मंगलाचरण, पुष्पांजलि, भूमि प्रणाम फिर विघ्नराज पूजा, बटू नृत्य, इष्टदेव पूजा, पल्लवी नृत्य, अभिनय नृत्य तथा समापन नृत्य मोक्ष (मुक्ति) इस क्रम में करते है।
वाद्य – वीणा, बांसुरी, पखवाज, मंजीरा, सितार या वायलिन आदि।
इस नृत्य में प्रयुक्त भंग, द्विभंग, त्रिभंग तथा पदचारण आदि मुद्राएँ भरतनाट्यम नृत्य के समान है।
ओडिसी नृत्य की भी परिकल्पना भरतनाट्यम नृत्य के समान पौराणिक गाथाओं पर आधारित होती है।
ओडिसी ने 1950 के दशक के बाद से भारत और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दृश्यता प्राप्त की, जब इसे रंगमंच के मंच पर प्रस्तुत किया जाने लगा।
1952 में, एक व्यवसायी बाबूलाल दोशी ने कटक में कला विकास केंद्र की शुरुआत की, जो ओडिसी नृत्य के अनुसंधान, विकास और शिक्षण के लिए पहला केंद्र था।
1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ, तो चार नृत्य रूपों को ‘शास्त्रीय’ के रूप में स्वीकार किया गया- भरतनाट्यम, कथक, कथकली और मणिपुरी।
1947 और 2000 के बीच, संगीत नाटक अकादमी (भारत की राष्ट्रीय संगीत, नृत्य और नाटक अकादमी, जिसे 1953 में स्थापित किया गया था) ने अन्य चार नृत्य रूपों- ओडिसी, कुचिपुड़ी, मोहिनीअट्टम और सत्त्रिया(2000) को ‘शास्त्रीय’ दर्जा दिया।
ओडिसी नृत्य के गुरु एवं कलाकार – पंकज चरण दास को अब ओडिसी के आदि-गुरु (प्रथम गुरु) के रूप में स्वीकार किया जाता है।
गुरु – पंकज चरण दासी, मोहन महापात्र, देबा प्रसाद दास, मायाधर राउत, हरे कृष्ण बेहरा केलुचरण महापात्र आदि।
कलाकार – संयुक्ता पाणिग्रही, सोनल मानसिंह, मिताली दास, प्रियंवदा मोहन्ती, मधुमिता राउत, किरन सहगल, माधवी मुदगल रानी कर्ण, कालीचरण पटनायक, इंद्राणी रहमान, शेरोल लोदेन(USA), मिर्त्ता बाखी(अर्जेंटीना), रीथा देवी, रत्ना रॉय आदि।